“अँधेरा जो तुम्हें डराता है, वही तुम्हें मजबूत बनाता है”

रात के सन्नाटे में जब हर चीज़ सो जाती है, तब कुछ आवाज़ें उठती हैं — तुम्हारे अंदर से। डर की, असफलता की, अकेलेपन की। वो फुसफुसाहट जो कहती है, “तुम नहीं कर पाओगे…” पर ज़रा ठहरो — क्या तुमने कभी उस डर को सीधा देखा है? क्या कभी उस सन्नाटे में खड़े होकर खुद से पूछा है — “अगर मैं सच में कोशिश करूँ, तो क्या हो सकता है?” हर इंसान के अंदर दो रूहें रहती हैं — एक डर की, और एक उम्मीद की। डर हमेशा तुम्हें रोकना चाहता है, कहता है “वापस मुड़ जाओ”, जबकि उम्मीद धीरे से कान में फुसफुसाती है, “एक कदम और…” डर बुरा नहीं है — वो तुम्हारा दुश्मन नहीं, बल्कि तुम्हारा सबसे सच्चा टीचर है। वो तुम्हें बताता है कि कौन-सा रास्ता तुम्हारे लिए वाकई मायने रखता है। क्योंकि जिस चीज़ से तुम सबसे ज़्यादा डरते हो, वही चीज़ तुम्हारी ज़िंदगी बदल सकती है। कभी-कभी ज़िंदगी ऐसे मोड़ पर ले आती है जहाँ लगता है सब खत्म हो गया। आँखों के आगे अँधेरा — अंदर से खालीपन — जैसे किसी सुनसान हवेली में खड़े हो, जहाँ हर दीवार तुम्हारे अंदर के डर की गूँज दोहरा रही हो। पर सच तो ये है कि ये अँधेरा तुम्हारा दुश्मन नहीं — ये तुम्हारा परीक्षा कक्ष है। अगर तुम इस अँधेरे को पार कर गए, तो तुम्हारी रूह का उजाला इतना तेज़ होगा कि कोई डर तुम्हें फिर कभी नहीं रोक पाएगा। हर सपने के पीछे एक डर छुपा होता है — किसी को असफलता का डर, किसी को मज़ाक बनने का, किसी को हार जाने का। लेकिन जो उस डर के पार चला गया, वो इतिहास बन गया। याद रखो — डर हमेशा सबसे ज़्यादा उसी को डराता है, जो उसके सामने झुक जाता है। पर अगर तुम मुस्कुराकर कह दो, “मैं तैयार हूँ”, तो डर की चीख भी कांपने लगती है। ज़िंदगी का असली मज़ा वहीं है जहाँ थोड़ा सा खतरा हो, थोड़ा अँधेरा हो, और दिल में आग हो। क्योंकि वही आग तुम्हें उस रोशनी तक ले जाती है, जहाँ तुम खुद को पहचानते हो — असली तुम। तो अगली बार जब डर महसूस हो, भागो मत। उसे देखो, समझो, और फिर कहो — “तू डर है, मैं इंसान हूँ… तू ख़त्म हो जाएगा, मैं आगे बढ़ जाऊँगा।” क्योंकि असली बहादुरी तब नहीं होती जब डर न लगे — बल्कि तब होती है जब डर लगा हो… और तुम फिर भी आगे बढ़ो।

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