“अँधेरा जो तुम्हें डराता है, वही तुम्हें मजबूत बनाता है”
रात के सन्नाटे में जब हर चीज़ सो जाती है, तब कुछ आवाज़ें उठती हैं — तुम्हारे अंदर से। डर की, असफलता की, अकेलेपन की। वो फुसफुसाहट जो कहती है, “तुम नहीं कर पाओगे…” पर ज़रा ठहरो — क्या तुमने कभी उस डर को सीधा देखा है? क्या कभी उस सन्नाटे में खड़े होकर खुद से पूछा है — “अगर मैं सच में कोशिश करूँ, तो क्या हो सकता है?” हर इंसान के अंदर दो रूहें रहती हैं — एक डर की, और एक उम्मीद की। डर हमेशा तुम्हें रोकना चाहता है, कहता है “वापस मुड़ जाओ”, जबकि उम्मीद धीरे से कान में फुसफुसाती है, “एक कदम और…” डर बुरा नहीं है — वो तुम्हारा दुश्मन नहीं, बल्कि तुम्हारा सबसे सच्चा टीचर है। वो तुम्हें बताता है कि कौन-सा रास्ता तुम्हारे लिए वाकई मायने रखता है। क्योंकि जिस चीज़ से तुम सबसे ज़्यादा डरते हो, वही चीज़ तुम्हारी ज़िंदगी बदल सकती है। कभी-कभी ज़िंदगी ऐसे मोड़ पर ले आती है जहाँ लगता है सब खत्म हो गया। आँखों के आगे अँधेरा — अंदर से खालीपन — जैसे किसी सुनसान हवेली में खड़े हो, जहाँ हर दीवार तुम्हारे अंदर के डर की गूँज दोहरा रही हो। पर सच तो ये है कि ये अँधेरा तुम्हारा दुश्मन नहीं — ये तुम्हारा परीक्षा ...